कालेज राजनीति में लड़कियां

पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडैंट्स यूनियन यानी डूसू इलैक्शंस हुए तो बहुमत में लड़कों की भागीदारी तो हमेशा की तरह ही थी लेकिन प्रैसिडैंट पोस्ट के लिए कांग्रेस से जुड़े नैशनल स्टूडैंट्स यूनियन औफ इंडिया (एनएसयूआई), औल इंडिया डैमोक्रेटिक स्टूडैंट्स और्गेनाइजेशन और औल इंडिया स्टूडैंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने चेतना त्यागी, रोशनी और दामनी कैन को मैदान में उतारा. हालांकि ये तीनों यह इलैक्शन जीत नहीं पाईं लेकिन उन का जज्बा और राजनीति में लड़कों के कदम से कदम मिला कर चलना काबिलेतारीफ रहा. प्रैसिडैंट न सही लेकिन जौइंट सेक्रेटरी पद पर एनएसयूआई की शिवांगी खरवाल ने बाजी मार ही ली. शिवांगी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडैंट्स यूनियन की जौइंट सेक्रेटरी बन कर लड़कियों के लिए राजनीति की राह प्रशस्त कर दी है. परंतु राजनीति की राह उतनी आसान नहीं जितनी कि वह दिखती है, खासकर लड़कियों के लिए.


''मैं ने जब 20 साल की उम्र में कालेज की राजनीति में कदम रखा तब मुझे सत्ता और ताकत का पहली बार एहसास हुआ. मेरा रुझान यों तो खेल और संगीत में था लेकिन जब मुझे अपने कालेज के प्रिंसिपल और शिक्षकों की तरफ से छात्रसंघ के प्रौक्टर का पद दिया गया तो मैं ने इस मौके को छोड़ा नहीं. सैकंड ईयर प्रौक्टर के पद से छात्रसंघ के अध्यक्ष बनने तक के सफर में मुझे मानसिक तनाव, निराशा और हताशा का भी कई बार सामना करना पड़ा.''


यह कहना है दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कालेज की पूर्व छात्रा अध्यक्ष कोमल प्रिया सिंह का. कोमल को राजनीति की कोई खास समझ नहीं थी. लेकिन जब उन्हें इस से जुड़ने का मौका मिला तो उन्होंने न सिर्फ इस में दिलचस्पी दिखाई बल्कि प्रौक्टर के पद से छात्र अध्यक्ष तक का सफर भी निडरता से तय किया. इस सफर में उन्हें वाहवाही और सफलता तो मिली लेकिन कई मुश्किल परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ा.


कोमल अकेली ऐसी लड़की नहीं है जिस ने बहुत ही कम उम्र में कालेज की राजनीति में कदम रखा. ऐसी सैकड़ों लड़कियां हैं, जो 20 साल से भी कम उम्र में राजनीति के रास्तों पर निकलीं और इतनी आगे निकलीं कि देश ही नहीं, विदेशों तक में अपने नाम का परचम लहराया. सुषमा स्वराज, अलका लांबा, जोथिमनी सैन्नीमलाई अगाथा संगमा, वृंदा करात, प्रियंका गांधी जैसी राजनीतिक हस्तियों ने बहुत ही कम उम्र से राजनीति की गहराइयों को समझा. परंतु लड़कियों के लिए चुनाव में सफलता के बाद भी मुश्किलें कम नहीं होतीं. संघर्ष कार्यकाल तक चलता रहता है.



चुनौतियां कम नहीं


ऊंचेऊंचे नारों के शोरगुल में जब लड़कियों की आवाज भीड़ से नहीं, बल्कि उम्मीदवारों के खेमे से आ रही हो तो सभी की नजरें उन पर टिक जाती हैं. कारण कई होते हैं, कोई उन्हें सम्मान की नजर से देखता है तो कोई हीनता की. 'लड़कियों की जगह ब्यूटीपार्लर में बैठ कर मैनीक्योर कराने की है, चुनाव में पसीना बहाने की नहीं' जैसे वाक्य खुद प्रैसिडैंट पद के उम्मीदवार लड़कों के मुंह से सुनने को मिल जाते हैं. और केवल डूसू ही क्यों, सामान्य कालेज स्टूडैंट्स यूनियन इलैक्शंस में भी लड़कियों की भागीदारी है तो सही मगर लड़कों से कम. इस भागीदारी का अनुपात कभी लड़कियों के पक्ष में नहीं रहा. इस की कई वजहें हैं, मातापिता की तरफ से सपोर्ट न होना, पढ़ाई का बीच में आना, समय न होना, राजनीति को खिन्नता से देखना, प्रोफैसरों का लड़कियों को राजनीति से दूर रहने की सलाह देना, खुद दोस्तों का साथ न मिल पाना आदि. यानी कालेज राजनीति में लड़कियां हैं तो जरूर मगर उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए. इन सभी के लिए चुनाव जीतने के बाद भी चुनौतियां कम नहीं होतीं.


जिम्मेदारियों का बढ़ना


छात्रसंघ से जुड़ कर केवल नारेबाजी और प्रचार ही नहीं करने पड़ते, छात्रों की समस्याओं को ले कर प्रबंधन से ले कर डीन, प्रिंसिपल और कालेज प्रशासन तक को संभालना पड़ता है. कई बार जब छात्रों की मांग और उन की परेशानियों का हल नहीं निकलता तो उस के लिए धरनाप्रदर्शन और दूसरे तरीके आजमाने पड़ते हैं. ऐसे में एक लड़की होने के नाते परेशानियां बढ़ती ही हैं. घंटों पार्टी, मीटिंग और कालेज प्रबंधन के साथ चर्चा करनी पड़ती है, समस्या का समाधान निकालना पड़ता है.


असुरक्षा की भावना


राजनीति जैसी जगह पुरुषों से भरी पड़ी है. वहां किसी लड़की का होना और उस पर भी अगर उस का दबदबा हो तो वह बहुत से पुरुष साथियों की नजर में खटकती भी रहती है.


भारतीय जनता पार्टी में कला संस्कृति की मीडिया प्रभारी और पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष रह चुकीं वीणा बेनीपुरी प्रसिद्ध कवि रामवृक्ष बेनीपुरीजी की बहू हैं. वीणा बेनीपुरी ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसी कई परिस्थितियों का सामना किया है. तब पार्टी के अन्य पुरुष सदस्यों को उन का आगे आना खटकता रहा. यहां तक कि उन की छवि को धूमिल करने का भी प्रयास किया गया. उन का नाम पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ गलत तरीके से भी जोड़ा गया.


इसी तरह की चीजें कालेज राजनीति में भी देखने को मिलती हैं. लड़के बाकायदा लड़कियों को धमकियां देते हैं, गालीगलौज की कोशिश करते हैं और उन्हें इलैक्शन में भाग लेने के साथसाथ जीतने पर पद त्यागने तक की नसीहतें देते फिरते हैं.


पढ़ाई पर असर पड़ता है


कालेज जाते तो पढ़ाई करने ही हैं लेकिन जब समाजसेवा की भावना से प्रेरित हो कर और छात्राओं के हक, सुविधा और सुरक्षा के लिए कालेज राजनीति से जुड़ना होता है, तो पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे पाना मुश्किल हो जाता है. आप को हमेशा ही छात्रों के बीच रहना होता है, उन की परेशानियां सुननी पड़ती हैं, पार्टी, मीटिंग या कालेज प्रशासन की तरफ से बुलाई गई बैठक में शामिल होना पड़ता है. कालेज में होने वाले इवैंट्स या खेल आयोजन को ले कर प्रबंधन करना होता है. इन सब के बीच पढ़ाई और नियमित रूप से क्लास लेना मुश्किल होता है. टौपर छात्राएं भी राजनीति में आ कर पढ़ाई से दूर होने लगती हैं और उन के ग्रेड्स लगातार गिरते जाते हैं.


परिवार की तरफ से रोकटोक


राजनीति भले ही कालेज की हो लेकिन परिवार के लिए वह देश की राजनीति से कम नहीं होती. उन के लिए अपनी बेटी की सुरक्षा हमेशा ही सर्वोपरि रहती है. जिन का पारिवारिक माहौल राजनीति का रहा हो उन्हें तो परिवार का पूरा साथ मिलता है, लेकिन जिन का राजनीति से दूरदूर तक संबंध नहीं होता वे अपनी बेटियों को इस में भेजने से डरते हैं. उन्हें कालेज के काम से बेटी का हर समय टैंशन में रहना, रातरातभर काम में उलझे रहना, अच्छेबुरे हर तरह के व्यक्ति से संबंध रखना अखरता है. यही कारण है कि वे उस पर रोकटोक लगाने लगते हैं. कोमल को भी अपने इस फैसले के लिए अपने परिवार से कुछ अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. लेकिन धीरेधीरे कोमल ने उन्हें समझा लिया.


दोस्ती में बदलाव


कालेज की कैंटीन में दोस्तों के बीच फैशन, रिलेशनशिप, सैक्स और हलकीफुलकी गौसिप की जगह जब छात्रदल की मांगों, अधिकारों और राजनीति जैसे गंभीर मुददों पर बातें होने लगें तो दोस्तों की कैटेगरी बदल जाती है. आप के साथ राजनीतिक सोच और समझ वाले लोग जुड़ जाते हैं. सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने दल और उन से जुड़े राजनीतिक विचारों के पोस्ट डालने के लिए करने लग जाते हैं. फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर का प्रयोग छात्रों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए किया जाने लगता है. ऐसे में जहां दोस्तों के बीच मनमुटाव पैदा होने लगते हैं वहीं यदि कुछ दोस्त अलगअलग पार्टियों से इलैक्शन लड़ते हैं तो उन की दोस्ती टूटना लगभग स्वाभाविक होता है.


''तू ये इलैक्शन मत लड़, लड़ेगा तो तू मेरा दोस्त नहीं.''


''मैं क्यों पद छोड़ूं, तू भी तो छोड़ सकता है.''


इन्हीं बातों के बीच दोस्त आगे निकल जाते हैं और दोस्ती पीछे छूट जाती है. यह टूटी हुई दोस्ती इलैक्शन खत्म होने के बाद भी कभी पहले जैसी नहीं होती, खासकर हारे हुए दोस्त की तरफ से.


निजी जीवन में परेशानियां


राजनीति जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिस से जुड़ने के बाद जिंदगी आम जिंदगी नहीं रह जाती. कोमल को भी अपनी निजी जिंदगी में अपने छात्र राजनीतिक जीवन का असर साफ दिखाई देता है. आप का एक आम लड़की की तरह दोस्तों के साथ घूमना और मस्ती करना बंद जैसा हो जाता है. अपने पहनावे को ले कर सजग होना पड़ता है. ऐसा न हो कि आप ने कुछ ऐसा पहन लिया जिस के लिए विरोधी दल के सदस्य आप के चरित्र को ही निशाना बना डालें. कालेज में तो होता भी यह है कि यदि आप पहले की तरह क्लास बंक करते हैं तो केवल आप के ही नहीं, बल्कि कालेज के बाकी सभी प्रोफैसर्स की नजरों में आप आ जाते हैं. आप के द्वारा कही गई एकएक बात पत्थर की लकीर बनने लगती है. निजी जीवन में चाहे आप ने अपने मातापिता को खुद से ऊंची आवाज में बात न करने दी हो लेकिन अब कालेज में स्टूडैंट्स का प्रतिनिधि होने के नाते आप को सभी के ताने भी सुनने पड़ते हैं और उपहास भी झेलना पड़ता है.


मुझे अच्छे से याद है जब मेरे कालेज में एनुअल फैस्ट के समय सैलिब्रिटी नहीं आया था तो स्टूडैंट्स ने प्रैसिडैंट की सरेआम धज्जियां उड़ा दी थीं. वह कालेज आ कर शक्ल दिखाना तो दूर, क्लासेज तक अटैंड नहीं कर पाता था. प्रैसिडैंट भी क्या, कालेज की आर्ट रिप्रिजैंटेटिव एक शांत स्वभाव की लड़की थी, वह पूरे डिपार्टमैंट की जिम्मेदारी खुशी से निभाती थी, लेकिन इलैक्शन जीतने के बाद जब वह अपने स्वभाव के अनुसार एक कोने में किताब ले कर बैठी रहती थी तो उस के खुद के दोस्त तक यह कहते फिरते थे कि वह बदल चुकी है, उस में घमंड आ गया है. इन शौर्ट, उसे अपनी निजी लाइफ अपनी शर्तों पर जीने के लिए भी जवाबदेह होना पड़ता था.


कालेज राजनीति में मजा भी


हालांकि कालेज राजनीति में अनेक चुनौतियां हैं लेकिन उस का मजा भी कुछ कम नहीं. यह लड़कियों की पहचान को बदल कर रख देती है. ऐसी कितनी ही लड़कियां हैं जो एक समय में बेहद शांत रहा करती थीं लेकिन कालेज राजनीति में उतरने और जीतने के बाद से उन के आत्मविश्वास में तेजी से बढ़ोतरी हुई. जीतना भी दूर की बात है, केवल कैंपेनिंग के बाद भी लड़कियों में भीड़ से लड़ने, सैकड़ों की भीड़ में आवाज उठाने   का साहस आ जाता है. यह कोई छोटी बात नहीं है.


एक महिला उम्मीदवार होने के नाते आप के दल के पुरुषसाथी भी आप के साथ खड़े होते हैं. आप के साथ हमेशा कुछ ऐसे पार्टी सदस्य होते हैं जो इस बात का बेहतर ध्यान रखते हैं कि कोई दूसरा आप के साथ दुर्व्यवहार न करे या आप का नाम खराब न करे.  विपक्षी दल आप की छवि बिगाड़ने का प्रयास करते रहते हैं. ऐसे में एक लड़की जब छात्र अध्यक्ष या फिर पार्टी में किसी मुख्य भूमिका में होती है तो उस की सुरक्षा का ध्यान ऐसे ही कुछ राजनीतिक मित्र रखते हैं जो भरोसेमंद होते हैं.


ताकत किसे अच्छी नहीं लगती. एक आम लड़की या छात्रा होने पर आप की मांगों को अहमियत नहीं दी जाती लेकिन जब आप के पास राजनीतिक ताकत होती है, तो सभी आप की बात को सुनते भी हैं और उस पर ठोस कदम भी उठाए जाते हैं. युवतियों और महिलाओं को हक और सम्मान के लिए आवाज उठाने की ताकत मिल जाती है. यूनिवर्सिटी में छात्राध्यक्ष के पास एक अच्छाखासा वोटबैंक होता है. उस वोटबैंक के कारण राज्य के विधायक और मंत्रियों का समर्थन भी मिलने लग जाता है. इस से आप को राज्य की राजनीति से जुड़ने का मौका भी मिलता है.


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